भारत और अमेरिका के रिश्तों में 2007 में एक ऐतिहासिक क्षण आया था, जब दोनों देशों के बीच एक महत्वपूर्ण न्यूक्लियर डील साइन हुआ था। इस डील को लेकर दुनिया भर में काफी उम्मीदें थीं। माना जा रहा था कि इसके परिणामस्वरूप भारत को नई और अत्याधुनिक तकनीकों की प्राप्ति होगी, जिससे उसकी ऊर्जा क्षमता में जबरदस्त वृद्धि होगी और वह वैश्विक मंच पर एक मजबूत खिलाड़ी के रूप में उभर सकता है। लेकिन समय के साथ इस डील के प्रभाव को लेकर कई सवाल खड़े हुए। आज भी अमेरिका ने भारत के कुछ कंपनियों को अपनी ‘रिस्ट्रिक्टेड लिस्ट’ में रखा हुआ है। हालांकि, अब लगता है कि वह स्थिति बदलने वाली है, क्योंकि हाल ही में अमेरिकी प्रशासन ने भारत के लिए एक बड़ा कदम उठाया है।
जेक सुलेमान का ऐलान: प्रतिबंध हटाए जाएंगे
अमेरिका के नेशनल सिक्योरिटी एडवाइजर (NSA) जेक सुलेमान ने हाल ही में एक अहम घोषणा की, जिसमें उन्होंने कहा कि अमेरिका अब भारत की कुछ कंपनियों पर लगाए गए ‘रिस्ट्रिक्शंस’ को हटा देगा। यह कदम अमेरिका और भारत के बीच सिविल न्यूक्लियर को-ऑपरेशन को बढ़ावा देने के लिए उठाया गया है। जेक सुलेमान का यह बयान उस समय आया जब वह भारत के दो दिवसीय दौरे पर थे, और उन्होंने इस दौरान भारतीय नेताओं से कई महत्वपूर्ण मुलाकातें कीं। सुलेमान ने यह घोषणा करते हुए कहा कि यह कदम भारत को अमेरिका की अत्याधुनिक न्यूक्लियर टेक्नोलॉजीज तक पहुंच प्राप्त करने में सहायक होगा, जो अब तक केवल अमेरिका के पास सीमित थीं।
2007 की न्यूक्लियर डील और उसके बाद की स्थिति
जब हम 2007 के न्यूक्लियर डील की बात करते हैं, तो यह एक बड़ा ऐतिहासिक मोड़ था। उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति जॉर्ज बुश और भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच इस डील पर हस्ताक्षर किए गए थे। इस डील में यह सुनिश्चित किया गया था कि भारत को ‘ड्यूल यूज न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी’ प्राप्त हो, जिसका मतलब था कि भारत को ऐसी तकनीकें मिल सकती थीं जिनका इस्तेमाल सिविल और मिलिट्री दोनों उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है। इसके तहत भारत को न्यूक्लियर पावर प्लांट, प्लूटोनियम रिसाइक्लिंग और यूरेनियम एन्हैंसमेंट जैसी तकनीकों का लाभ मिल सकता था।
हालांकि, इसके बाद कई विवाद और चुनौतियाँ सामने आईं। अमेरिका और भारत के बीच कई बार तकनीकी और कानूनी अड़चनें आईं, जिससे यह डील पूरी तरह से लागू नहीं हो पाई। एक बड़ा मुद्दा यह था कि भारत ने न्यूक्लियर नॉन-प्रोलिफरेशन ट्रीटी (NPT) पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, जिससे अमेरिका को अपनी तकनीक देने में हिचकिचाहट थी।
अमेरिका का नया दृष्टिकोण: भारत का साथ देना जरूरी
हालांकि अब अमेरिका का नजरिया बदल चुका है। जेक सुलेमान ने कहा कि अमेरिका को यह समझ में आ गया है कि यदि वह भारत का साथ नहीं देगा, तो भारत कहीं न कहीं रशिया और चीन की ओर बढ़ सकता है, जो वैश्विक राजनीति में एक नया भू-राजनीतिक समीकरण बना सकता है। इससे न केवल अमेरिका का असर कम हो सकता था, बल्कि भारत को भी अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए अन्य विकल्पों की तलाश करनी पड़ सकती थी।
हाल ही में भारत, रूस और चीन के बीच हुए न्यूक्लियर पावर प्लांट सेटअप के प्रस्ताव से भी अमेरिका को यह एहसास हुआ कि भारत और रूस के बीच संबंधों में मजबूती आ रही है, और चीन के साथ भी भारत का सहयोग बढ़ रहा है। इससे अमेरिका को चिंता हो रही थी कि कहीं भारत उसके हाथ से न निकल जाए। इसी कारण, बाइडन प्रशासन ने भारत के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करने के लिए यह बड़ा कदम उठाया।
भारत को मिलेंगी नई तकनीकें
अब जब अमेरिका ने अपनी प्रतिबंधित लिस्ट से भारत की कंपनियों को बाहर करने का फैसला किया है, तो इससे भारत को कई तरह के फायदे हो सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि भारत को अब अमेरिका की अत्याधुनिक न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी मिल सकेगी, जिसका उपयोग वह अपने सिविल न्यूक्लियर पावर प्लांट्स के लिए कर सकेगा। इससे भारत की ऊर्जा उत्पादन क्षमता में भारी वृद्धि हो सकती है, और वह अपने ऊर्जा संकट को हल करने में सक्षम हो सकता है। इसके अलावा, भारत को सेमीकंडक्टर, क्वांटम कंप्यूटिंग और अन्य उभरती हुई तकनीकों में भी सहयोग मिलेगा, जो देश की आर्थिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण हो सकता है।
न्यूक्लियर ऊर्जा: भारत के लिए एक महत्वपूर्ण कदम
भारत के लिए यह एक ऐतिहासिक अवसर हो सकता है। अगर यह तकनीकी सहयोग सही दिशा में आगे बढ़ता है, तो भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए न्यूक्लियर पावर का उपयोग बढ़ा सकता है। 2030 तक भारत का लक्ष्य है कि वह 20,000 मेगावाट न्यूक्लियर पावर उत्पादन करे, जो अब संभव हो सकता है। साथ ही, यह कदम भारत की ऊर्जा नीति को भी एक नई दिशा दे सकता है, क्योंकि इसे डी-कार्बनाइजेशन (decarbonization) और क्लीन एनर्जी के क्षेत्र में बड़ी सफलता मिल सकती है।
भारत-अमेरिका के रिश्ते: नए अवसर
जेक सुलेमान ने अपने भारत दौरे के दौरान यह भी कहा कि दोनों देशों के बीच “आईसीसीईटी” (Critical and Emerging Technologies) के तहत सहयोग और भी गहरा हो सकता है। इस कार्यक्रम के तहत, जेट इंजन, सेमीकंडक्टर, क्लीन एनर्जी और क्वांटम कंप्यूटिंग जैसे क्षेत्रों में दोनों देशों के बीच साझेदारी और तेजी से बढ़ रही है। इसके परिणामस्वरूप, दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश में भी बढ़ोतरी हो रही है।
निष्कर्ष
अमेरिका और भारत के बीच न्यूक्लियर सहयोग में यह बदलाव दोनों देशों के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है। इससे न केवल भारत को नई तकनीकों का लाभ मिलेगा, बल्कि यह देश की ऊर्जा सुरक्षा को भी सुनिश्चित करेगा। इसके अलावा, यह दोनों देशों के रिश्तों को और मजबूत करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अमेरिका और भारत के बीच यह नया सहयोग किस दिशा में आगे बढ़ता है, और यह दोनों देशों के आर्थिक और रणनीतिक संबंधों को किस हद तक प्रभावित करेगा।