“पापा, बस हम लोग निकल रहे हैं, शाम तक लौट आएंगे। आप प्लीज घर का ख्याल रखना। हां, आपका खाना टेबल पर रख दिया है, जब भी भूख लगे, लेकर खा लेना। रात तक का ही खाना बना दिया है, हमें आने में देर हो जाएगी, तो थकने के बाद खाना नहीं बनेगा और वैसे भी हम लोग खाना खाकर आएंगे। और हां, जाते-जाते बाहर ताला लगाकर जा रहे हैं। अपना ख्याल रखना।”
दोनों बेटे और बहुएं ये कहते हुए अपने-अपने परिवार के साथ घर से बाहर निकल गए। आज इन लोगों का रिजॉर्ट जाने का मूड है। सुबह से शाम तक वही मौज-मस्ती करने का इरादा है। एक बार भी किसी ने भी विशंभर जी से नहीं पूछा कि वे भी जाना चाहते हैं या नहीं।
सोफे से उठकर वे खिड़की के पास गए और खिड़की से नीचे देखा तो दोनों बेटे अपनी-अपनी कारों में बच्चों के साथ बैठकर रवाना हो गए। थोड़ी देर तक वे खिड़की के बाहर यूं ही ताकते रहे, उसके बाद उदास मन से धीरे-धीरे चलते हुए डाइनिंग टेबल पर आए और वहां रखे खाने को खोलकर देखा। किसी स्टील के डिब्बे में पांच रोटियां, डोंगे में पतली सी दाल, एक प्लेट में सलाद के नाम पर एक प्याज कटा हुआ रखा था।
खाने को देखते ही मन ही मन सोचने लगे—”अभी तो सुबह के आठ ही बज रहे हैं, आज पूरा दिन मुझे इसी खाने से निकालना है, रात को भी खाना नहीं मिलेगा, इतने से मेरा पेट कैसे भरेगा?” पिछली बार भी जब ये लोग घूमने गए थे, तब भी बहु इतना सा ही खाना बनाकर गई थी। रात को घर पर आने के बाद विशंभर जी ने सिर्फ इतना ही तो कहा था—”बहु, मुझे बहुत जोर से भूख लगी है।” बस उसी पर दोनों बहुओं ने रोना-धोना मचा दिया था, और बेटे तो वैसे भी अपनी पत्नियों के आगे कुछ बोलते नहीं हैं। पर आज फिर वही हुआ।
एक लंबी, गहरी सांस लेकर अपने कमरे की तरफ आए। कमरे में अपनी पत्नी की तस्वीर देखकर आंखों में आंसू आ गए।
“एक वो थी, जो कभी मुझे भूखा नहीं रहने देती थी। पर उसके जाने के बाद तो सचमुच पेट भर खाने को भी तरस गया हूं।”
सोचा था कि रिटायर होने के बाद परिवार वालों के साथ खूब घूमूंगा-फिरूंगा, पर यहां तो बीमार नहीं हूं फिर भी घर में हर कोई मुझे बीमार बनाने में लगा हुआ है। जानता था कि हर बात के दो पहलू होते हैं, पर कभी इस पहलू के बारे में तो सोचा ही नहीं था। पहले कितना घूमने का शौक था—महीने में दो बार तो परिवार के साथ बाहर घूमने निकल ही जाते थे। पर अब कितने महीने हो गए हैं, घर के बाहर भी नहीं निकला हूं। ये लोग जब भी कहीं जाते हैं, ताले में बंद करके जाते हैं। एक बार भी नहीं पूछते कि पापा, आपको भी चलना है क्या? अब तो घुटन सी होने लगी है। किसी से बाहर बात भी नहीं करने देते और खुद भी बैठकर बात करना पसंद नहीं करते। आजकल पता नहीं दोस्तों के भी फोन नहीं आते, ना उनका फोन लगता है—अपने घर का चौकीदार बना कर रख दिया है मुझे। जब हाथ-पैर चल रहे हैं, तब मेरी कदर नहीं है, तो जिस दिन बिस्तर पकड़ लूंगा, तब तो पूछेंगे भी नहीं। किसी न किसी निर्णय पर पहुंचना अब बहुत जरूरी हो चुका है।
अभी विशंभर जी मन ही मन सोच ही रहे थे कि तभी उनके फोन पर एक अनजान नंबर से कॉल आया। मोबाइल उठाया, तो दूसरी तरफ उनके पुराने दोस्त निर्मल जी बोल रहे थे,
“और विशंभर, कैसा है? कितने दिनों बाद तेरा फोन लगा है!”
“अरे निर्मल, आज इतने दिनों बाद तुझे मेरी याद कैसे आ गई?”
“भाई, ये पूछने के लिए कि कब तक भाभी के जाने का गम मनाएगा? कुछ आगे का सोचा है कि नहीं?”
“मतलब?”
“मतलब ये कि इस बार हम सारे दोस्त मिलकर रामेश्वरम घूमने जा रहे हैं, तो भी चलेगा इस बार?”
“पिछली दो बार भी तो तूने मना कर दिया था!”
“मैंने मना किया कब? पिछली बार हम लोग सुर्देवी यात्रा पर गए थे, और उससे पहले मानसरोवर यात्रा पर। तेरे फोन पर फोन लगाओ तो लगता ही नहीं है। आखिर तेरे बेटों को फोन लगाया, तब तेरे बेटे ने ही कहा कि पापा मना कर रहे हैं, अब मम्मी के बिना कहीं मन नहीं लगता। इस बार मैंने किसी और नंबर से फोन लगाया, तो लग गया। सुन, कमाल है ये नंबर तो लग गया!”
सुनकर विशंभर जी हैरान रह गए। उन्हें तो बिल्कुल पता ही नहीं था कि पहले भी दो यात्राएं जा चुकी हैं—मतलब बेटों ने उन तक बात पहुंचाई ही नहीं। तभी निर्मल जी बोले—
“अरे, क्या हुआ, जवाब तो दे!”
अचानक निर्मल जी की आवाज से विशंभर जी की तंद्रा टूटी, “अरे हां, इस बार जरूर जाऊंगा। कितना पेमेंट देना है, वो बता देना, मैं डिपॉजिट कर दूंगा।”
“चल, मैं तुझे अपने व्हाट्सएप ग्रुप में जोड़ लेता हूं, वहीं सारी डिटेल भेज दूंगा। रही बात पेमेंट की, वो तू बाद में दे देना। वैसे भी हम कल ही रवाना हो रहे हैं और तेरी टिकट हमने पहले ही करवा ली थी। अगर तू फोन नहीं उठाता तो हम आज तेरे घर ही आ जाते। अच्छा, डिटेल आधे घंटे में भेजता हूं, फटाफट तैयारी कर ले—कल सुबह ही निकलना है।”
निर्मल जी ने फोन रख दिया।
फोन रखते ही विशंभर जी ने अपना फोन चेक किया, तो देखा कि अधिकतर सभी दोस्त उसमें ब्लॉक कर रखे थे। उन्हें याद आया कि पिछली बार बच्चों को अपने भरोसे छोड़कर चारों आंटी घूमने गए थे। देख कर उनका दिमाग घूम गया—इतना बड़ा धोखा!
कुछ देर तक आंखों में आंसू लिए अपनी पत्नी की तस्वीर की तरफ देखते रहे, फिर आंसू पोंछकर सबसे पहले विशंभर जी ने अपने सारे दोस्तों को अनलॉक किया।
उसके बाद उठकर अपने कमरे में गए, अपनी अलमारी में से अपने टूर पर पहनने वाले कपड़े निकाले, अपने स्पोर्ट्स शूज निकाले और उनकी धूल साफ की, कुछ जरूरी कागज और आईडी रखी, मोबाइल पर अकाउंट चेक किया, दवाइयों का बॉक्स रखा और जितना समझ आया, उसके हिसाब से पैकिंग कर ली। अब बस इंतजार था अगले दिन का।
रात को जब बच्चे घर आए, तब तक विशंभर जी सो चुके थे। किसी ने भी उनके कमरे में जाने की जहमत नहीं उठाई, सब अपने-अपने कमरे में जाकर सो गए।
दूसरे दिन जब बेटे और बहुएं चाय पी रहे थे, तब विशंभर जी तैयार होकर अपना बैग लेकर बाहर आए। उन्हें देखते ही बड़ा बेटा बोला,
“अरे पापा, कहां चल दिए?”
“मैं अपने दोस्तों के साथ रामेश्वरम टूर पर जा रहा हूं, मेरा भी टिकट है।”
विशंभर जी की बात सुनकर चारों बेटे-बहुएं एक-दूसरे का मुंह देखने लगे।
बड़ी बहु बोली, “पर पापा जी, आप ऐसे कैसे जा सकते हैं? बच्चों के एग्जाम शुरू होने वाले हैं, और हमें भी बेंगलुरु के लिए रवाना होना है, मेरे मौसा जी के बेटे की शादी है, बच्चों को हम किसके भरोसे छोड़कर जाएंगे? आपने सोचा भी है?”
छोटी बहु ने भी कहा, “और क्यों फालतू में पैसे खर्च करना? आपके पास इतना ही पैसा है तो थोड़ा-बहुत हमें ही दे दीजिए। वैसे भी इस उम्र में घूमने की क्या जरूरत है? कल को गिर पड़े तो सेवा कौन करेगा? इसलिए चुपचाप अपना सामान वापस कमरे में रख दीजिए।”
“मुझे ऑर्डर देने वाली तुम कौन होती हो, बड़ी बहु? तुम लोगों ने मुझे अपने घर का चौकीदार समझ रखा है, जो अपने बच्चों को मेरे भरोसे छोड़कर चले जाते हो। तुम लोगों की हिम्मत कैसे हुई मेरे मोबाइल से मेरे दोस्तों को ब्लॉक करने की?”
“पापा, वो आपको डिस्टर्ब ना करें इसलिए ब्लॉक किया था।”
“अच्छा, मेरे आराम का इतना ही ख्याल है तो अपने बच्चे खुद संभाल लो। रही बात घूमने-फिरने के खर्च की, तो मैं अपनी खुद की कमाई के पैसों से जा रहा हूं, किसी को बताने की जरूरत नहीं है।”
कहकर विशंभर जी वहां से रवाना हो गए। बेटे-बहुओं से कुछ बोलते नहीं बना।