“बहू, बाजार जा रही हो? सर्दी का मौसम आ रहा है, मेरे लिए दो-चार जोड़ी मोजे ले आना। एक दिन में एक मोजा सूखता नहीं है, क्या किया जाए, बुढ़ापे का शरीर है, बहुत जल्दी ठंड भी लग जाती है। और हां बहू, अंकित से कहना गैस की दवाई खत्म हो गई है, वो मंगवा देना। तुम्हें अगर रास्ते में कहीं दवाई की दुकान मिले तो तुम ही ले आना, किसलिए अंकित को परेशान करोगी?”
सुधा जी अपनी बहू विशाखा से कहती हैं।
विशाखा बोली, “मम्मी जी, आप घर में किसी को भी बाजार जाते देखती हैं तो अपनी कोई न कोई डिमांड रख देती हैं। अभी पिछले साल ही तो मैंने दो जोड़ी मोजे आपके लिए मंगवाए थे, कहां गए वो? और अभी परसों ही तो गैस की दवाई आप ले रही थीं, इतनी जल्दी खत्म हो गई?”
सुधा जी बोलीं, “बहू, अब तुमसे क्या छुपाना? वो जो हमारी पड़ोसन निर्मला जी हैं, कितने दिनों से अपने बेटे-बहू को कह रही थीं कि उन्हें मोजे चाहिए, पर उनके पास वक्त ही नहीं है। तो मैंने अपने वाले उन्हें दे दिए, बेचारी ठंड से परेशान हो रही थीं। और जहां तक गैस की दवाई की बात है, जब मैं पिछले हफ्ते गांव गई थी तो तुम्हारी चाची सास को गैस की बड़ी दिक्कत हो रही थी, तो मैंने वो दवाई उन्हें दे दी और बता दिया कि खाना खाने के आधे घंटे पहले, एक हफ्ते लगातार, हर रोज़ एक गोली लेंगी तो ठीक हो जाएंगी। उन्होंने मुझसे पूछा भी कि यह दवाई आपको किसने सुझाई, तो मैंने तुम्हारे बारे में बताया। वे तुम्हारी तारीफ कर रही थीं।”
विशाखा बोली, “मम्मी जी, आप भी हद करती हैं। हमने कोई घर में फार्मेसी या धर्मशाला खोलकर नहीं रखी है, जो आप अपनी चीजें बांटती रहती हैं। पता है, इन चीजों के भी पैसे लगते हैं, हमें भी ये मुफ्त में नहीं मिलते। आप तो इस तरह से चीजें बांटती हैं जैसे खुद कंकड़-पत्थर लाती हों। यह आखिरी बार होगा जब मैं आपको मोजे लाकर दूंगी, अगर आइंदा से आपने किसी को दिया तो मुझसे उम्मीद मत कीजिएगा कि चिल्लाकर दूंगी। फिर पुराने दिनों की तरह सलाई और ऊन लेकर खुद के लिए मोजे बुनती रहिएगा।”
इतना कहकर विशाखा चली गई।
शाम को सुधा जी बैठकर टीवी देख रही थीं, तभी अंकित घर आया और बोला, “क्या मम्मी, पूरे दिन टीवी देखती रहती हो, कोई और काम नहीं है क्या? मुझे तो बचपन में कहती थीं कि ज्यादा टीवी देखने से आंख खराब हो जाती है। आपको पता है बिजली का बिल कितना आता है? और ये विशाखा दिख नहीं रही है, कहां गई?”
सुधा जी ने तुरंत टीवी बंद कर दिया और बोलीं, “बेटा, घर में कोई था नहीं, इसलिए टीवी देखने बैठ गई थी। बहू शायद बाजार गई है, बहुत देर हो गई, अभी तक आई क्यों नहीं?”
तभी उधर से विशाखा भी आ गई और बोली, “मम्मी जी, पूरी बात बताया कीजिए, आधी-अधूरी बात बताकर घर में कलह मत करवाईए।”
सुधा जी बोलीं, “बहू, मैं तो बस बता रही थी कि…”
तभी विशाखा बोली, “ये क्यों नहीं बताया कि आपका सामान लेने भी मैं ही गई थी?”
अंकित बोला, “कौन सा सामान?”
विशाखा बोली, “आपकी मां आजकल टिया की मूर्ति बनी फिरती हैं, कभी दवाई, कभी मोजे, अपना सामान दूसरों को दान कर देती हैं, और फिर मुझसे बाजार से लाने के लिए कहती हैं।”
अंकित बोला, “मम्मी, ये मैं क्या सुन रहा हूं? आप इतनी लापरवाह कैसे हो सकती हैं, चीजों का ख्याल रखना भूल गईं क्या? अगर ऐसा ही चलता रहा तो अब मुझे और आपकी बहू को आपकी हर चीज का हिसाब रखना पड़ेगा।”
इतना सुनाकर अंकित अपनी पत्नी के साथ कमरे में चला गया।
पीछे से सुधा जी का चेहरा उतर गया।
कुछ समय बाद अंकित अपनी पत्नी के साथ कहीं घूमने जा रहा था। सुधा जी बोलीं, “बहू, मेरा शुगर फ्री वाला च्यवनप्राश और हाजमोला भी खत्म होने को है, बाजार जाओ तो लेती आना।”
विशाखा बोली, “मम्मी जी, हम जब भी बाहर कहीं जाते हैं, आप जरूर टोकती हैं, और क्या सारा सामान खत्म हो गया है?”
“नहीं बहू, अभी दो दिन का है, इसलिए तुम्हें बता रही हूं।”
अंकित बोला, “मम्मी, एक-दो दिन अगर च्यवनप्राश और हाजमोला नहीं खाओगी तो कमज़ोर नहीं हो जाओगी।”
इतना कहकर वे दोनों चले गए।
उनके जाने के कुछ समय बाद दरवाजे की घंटी बजी। सुधा जी ने जाकर देखा, तो उनके पति के पुराने मित्र रामलाल जी आए थे। दोनों बैठकर बातें कर रहे थे।
रामलाल जी बोले, “भाभी जी, संपत भाई की पेंशन जो छह महीने से रुकी हुई थी, अब चालू हो गई है और उसमें कुछ इजाफा भी हुआ है। अब आपके पैसे खत्म नहीं होंगे। मेरी भी तबीयत ठीक नहीं रहती, इसलिए बार-बार नहीं आ पाऊंगा। आपने जो कहा था, उसके लिए मैंने बैंक में बात कर ली है, वो आपके सारे पैसे आपके गांव वाले अकाउंट में ट्रांसफर कर देगा और ये एटीएम कार्ड रखिए, जब भी जरूरत हो निकाल लीजिए।”
सुधा जी बोलीं, “रामलाल जी, इनके जाने के बाद आपने मेरी बहुत मदद की है, क्या बताऊं, बेटे-बहू के साथ रह रही हूं, मेरी वजह से उनके भी खर्चे बढ़ गए हैं। ये तो चले गए, पर मेरे बुढ़ापे का इंतजाम करके गए हैं। इस शहर में कुछ अपनापन नहीं लगता, और मेरी वजह से आपको दूसरे शहर से यहां आना पड़ा, इतनी तकलीफ उठानी पड़ी, इसके लिए माफी चाहूंगी।”
रामलाल जी बोले, “भाभी जी, आप ये बात कहकर मुझे पराया कर रही हैं। संपत भाई मेरे बड़े भाई जैसे थे। जब भी मुझे कोई दिक्कत होती थी, तो मदद करते समय कभी मुझसे हिसाब नहीं मांगते थे। भाभी, मैं आपकी परेशानी समझ सकता हूं। ये आजकल लगभग हर घर की परेशानी बन चुकी है। मां-बाप अपना सब कुछ लुटाकर बच्चों के लिए खुश होते हैं, पर वही बच्चे अपनी दुनिया में खो जाते हैं।”
थोड़ी देर बाद रामलाल जी चले गए। जब बेटा-बहू लौटकर आए तो टेबल पर प्लेट में कुछ बिस्कुट रखे हुए थे।
विशाखा बोली, “मम्मी जी, कोई आया था क्या?”
सुधा जी ने सारी बात बताई।
विशाखा बोली, “कुछ हजार रुपए की पेंशन के लिए इतनी आवभगत करने की क्या जरूरत थी? देखिए, बिस्कुट खुले में रखकर खराब कर दिए। आप बहुत चीजों की बर्बादी करती हैं, मम्मी जी, थोड़ा ध्यान रखा कीजिए।”
सुधा जी बोलीं, “कोई बात नहीं बहू, वैसे भी शाम हो गई है, मैं चाय के साथ ये बिस्कुट खा लूंगी।”
अंकित बोला, “मम्मी, आपकी उम्र हो गई है, लेकिन अक्ल नहीं आई है। चीजों की बर्बादी के लिए अगर बहू सास को टोकती है, तो इसमें बुरा मानने वाली कौन सी बात है? शुक्र मनाइए, कम से कम आपसे वो हिसाब तो नहीं ले रही है। पापा की 25-30 हजार की पेंशन दिख रही है, पर हमारे घर में 2 साल से कितना खर्च हुआ वो आपको नहीं दिख रहा। बेटे का पैसा भी आपका ही है, थोड़ा इसका भी हिसाब रखा कीजिए।”
इतना कहकर बेटा वहां से चला गया।
इन छोटी-छोटी बातों से कहीं न कहीं सुधा जी के अंदर कुछ टूट रहा था। वे हर रोज सोचती थीं कि जिस बेटे से आज तक मैंने कभी हिसाब नहीं मांगा, वो बुढ़ापे में मुझसे हर चीज का हिसाब रखना चाहता है। यही सोच रही थीं कि अचानक फोन की घंटी बजी, गांव से सुधा जी की सहेली दीपा का फोन था।
जब उन्होंने अपनी बहू की सारी बातें बताईं, तो दीपा जी ने जो बताया, उसे सुनकर सुधा जी के पैरों तले जमीन खिसक गई।
दीपा जी बोलीं, “तुम्हारे बच्चे तो तुमसे हिसाब मांग रहे हैं, मेरे बच्चे तो मुझे टूटे-फूटे गांव के घर तक छोड़कर चले गए और वापस पलट कर देखने भी नहीं आए। वो तो अच्छा है कि पति की पेंशन पर उनका हक नहीं बन पाया, आज वही सहारा है और मैं सुख-शांति से दो रोटी खाकर जी रही हूं।”
सुधा जी बोलीं, “दीपा, अकेले रहना अच्छा है?”
दीपा जी बोलीं, “वहां अपनों में भी तो हम अकेले हैं। यहां भी उतना अकेलापन नहीं महसूस होता।”
दो-तीन दिन तक सुधा जी दीपा की कही बातों को सोचती रहीं। इधर बेटा और बहू दिन-रात किसी न किसी बात पर उनसे हिसाब लेते रहते थे। एक रोज सुधा जी ने अपने लिए एक निर्णय लिया और बेटे-बहू को अपना फैसला सुनाया,
“मैं अब गांव जाकर रहना चाहती हूं।”
अंकित बोला, “मम्मी, अगर जा रही हो तो ये याद रखना कि मैं वहां आकर आपसे मिलने नहीं आ पाऊंगा। मुझे छुट्टी भी नहीं है कि छोड़ने जाऊं। हां, मैं ड्राइवर को कह दूंगा, वह आपको छोड़ देगा।”
सुधा जी मुस्कुराते हुए अपना सामान समेटने लगीं और बोलीं,
“बेटा, तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं है, मैं तुम्हें कभी परेशान नहीं करूंगी और न ही अब तुम्हारा खर्चा बढ़ेगा। बस, हो सके तो जब अंतिम सांस लूं, तो अपना चेहरा दिखा जाना, ताकि जाकर भगवान से हिसाब मांग सकूं कि आखिर मैंने ऐसा क्या किया जो मुझे ऐसा बेटा मिला।”
इतना कहकर सुधा जी निकल गईं।
आज दो महीने हो गए, न अंकित ने सुधा जी को फोन किया, न ही सुधा जी ने अपने मन का दुख उनसे साझा किया।
पूरा दिन वे पड़ोस और अपनी सहेली के साथ समय बितातीं। पति के अच्छे व्यवहार के कारण गांव वाले उनकी बहुत इज्जत करते। सुधा जी ने अपनी छोटी-सी जमीन पर कुछ पैसे लगाकर सब्जी उगाने का काम शुरू करवाया। कुछ लोगों को रोजगार मिला और सुधा जी को लोगों का साथ मिला, तो वक्त भी अच्छा कटने लगा।